19 अगस्त 1943 को भाभा ने जे.आर. डी. टाटा को एक पत्र में लिखा, “… भारत में उपयुक्त शोध प्रयोगशालाएँ/संसाधन और बुद्धिमत्तापूर्ण आर्थिक सहयोग न होने की वज़ह से यहाँ की प्रतिभाएँ उस गति से शोधकार्य करने में असमर्थ है जिससे वे काम कर सकती हैं और इससे देश में विज्ञान का विकास बाधित हो रहा है।… यह हमारा कर्तव्य है कि हम देश में रहें और ऐसे शिक्षा संस्थानों का निर्माण करें जो कि देश के बाहर के सर्वोकृष्ट संस्थानों के तुल्य हों।”
जे. आर .डी. टाटा ने इस पत्र का उत्तर देते हुए लिखा था, “यदि आप और वैज्ञानिक दुनिया में आपके कुछ सहयोगी कुछ ठोस प्रस्ताव रखेंगे, तो मैं सोचता हूँ कि सर दोराब जी ट्रस्ट आपके प्रस्तावों का ज़रूर उत्तर देगा।”

अंततः अधिकतर टाटा ट्रस्ट देश में मूलभूत विज्ञान के विकास के उद्देश्य के साथ ही स्थापित किये गए और वह इस दिशा में पहले से ही द्रष्टव्य योगदान दे चुके हैं। मुझे दृढ़ विश्वास है कि वे इस प्रस्ताव पर अपना सर्वाधिक गंभीर उत्तर देंगे।” इसके बाद भाभा ने मुंबई में एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान की स्थापना के लिए योजना और रूपरेखा बनानी शुरू कर दी। इसके लिए उन्होंने कई बड़े लोगों से बात भी की और सलाह ली। सन 1942 में वैज्ञानिक और औद्यौगिक अनुसन्धान बोर्ड का नाम बदलकर वैज्ञानिक और औधोगिक अनुसन्धान परिषद् कर दिया गया, जिसका नेतृत्व शांति स्वरूप भटनागर कर रहे थे। भाभा को प्रो. भटनागर से आर्थिक मदद की आशा थी। सन 1943 में जब जाने-माने प्रोफेसर हिल से उनकी मुलाकात हुई, तब तक वह मुंबई में इस संस्थान के बारे में रूपरेखा बना चुके थे क्योंकि उन्हें बम्बई सरकार से मदद की आशा थी। रॉयल सोसाइटी लन्दन का फेलो चुने जाने के बाद भारत में भाभा का सम्मान बढ़ गया था। इस मौके का लाभ लेते हुए उन्होंने प्रोफ़ेसर हिल की सलाह के साथ 12 मार्च 1944 को सर सोराब सकालतवाला (जो कि सर डी. टी. ट्रस्ट के चेयरमेन थे) को यह औपचारिक पत्र लिखा। यहीं से टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च मुंबई की स्थापना की शुरुआत हुई। भाभा ने सोराब जी को यह पत्र लिखा था – (Read More……)